Sukh batne se dugna ho jaata hain aur dukh batne se adha ho jaata Hain
कभी स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि सुख बांटने से दोगुना हो जाता है और दुख बांटने से आधा रह जाता है। जब हम अपने सुख को किसी परिवारिक सदस्य, मित्र या संबंधी के साथ बांट कर प्राप्त सुख का भोग करते हैं तब हमारा सुख दोगुना हो जाता है। इसी तरह जब कोई अपना हमारे जीवन में आए हुए दुख को बांटता है तब हमारा दुख आधा रह जाता है। वस्तुत: सुख और दुख को बांटने की प्रकिया में मूल रूप से व्यक्ति की संवेदना ही काम करती है।
इसलिए जिसकी संवेदना जितनी अधिक होती है और जिसकी भावनाएं जितनी अधिक संस्कारित और मानवीय होती हैं, वह उतने ही लंबे प्रीतिभाव से दूसरे का सुख या दुख बांट पाता है। अगर ऐसा नहीं होता तब व्यक्ति अपने से भिन्न किसी का सुख देखकर उसके प्रति या तो ईष्र्यालु हो जाता है या फिर क्रोधभाव से अभिभूत होकर अकारण ही सुखी व्यक्ति को हानि पहुंचाने का प्रयास करने लग जाता है।
इसी तरह से संकुचित संवेदना वाला व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को दुखी देखकर भी उसके प्रति करुण न होकर कठोर भाव वाला ही बना रहता है और इस विचार से संतुष्ट होने का प्रयास करता है कि इस व्यक्ति के साथ प्राकृतिक न्याय ठीक ही हुआ और अब ऊंट पहाड़ के नीचे आया है।
संस्कृत व्याकरण के अनुसार संवेदना शब्द में दो पद हैं। एक पद है सम् और दूसरा पद है-वेदना। इसमें ‘सम् का अर्थ है समान और वेदना का अर्थ है-अनुभूति। जब किसी एक व्यक्ति की अनुभूति किसी दूसरे व्यक्ति के सुख-दुख के साथ जुड़ जाती है तो उसे संवेदना कहते हैं। यह मनुष्य का एक उत्तम गुण कहा जाता है जिसके मूल में करुणा, अलोभ और समत्व की भावना मुख्य रूप से रहती है। जब कोई व्यक्ति किसी दूसरे के दुख से दुखी होता है तो ऐसी स्थिति तभी आती है जब हममें करुणा होती है और हम अपना कुछ त्याग करके दुखी व्यक्ति के लिए सहयोग करने को तत्पर होते हैं। संवेदना का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इससे व्यक्ति एक दूसरे के साथ जुड़ा महसूस करने लगता है और इससे सह अस्तित्व का सृजन होता है। यह समाज को एकसूत्र में बांधने का सवरेत्तम गुण है और आज के समय में इसका सर्वाधिक मूल्य और महत्व है।
कभी स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि सुख बांटने से दोगुना हो जाता है और दुख बांटने से आधा रह जाता है। जब हम अपने सुख को किसी परिवारिक सदस्य, मित्र या संबंधी के साथ बांट कर प्राप्त सुख का भोग करते हैं तब हमारा सुख दोगुना हो जाता है। इसी तरह जब कोई अपना हमारे जीवन में आए हुए दुख को बांटता है तब हमारा दुख आधा रह जाता है। वस्तुत: सुख और दुख को बांटने की प्रकिया में मूल रूप से व्यक्ति की संवेदना ही काम करती है।
इसलिए जिसकी संवेदना जितनी अधिक होती है और जिसकी भावनाएं जितनी अधिक संस्कारित और मानवीय होती हैं, वह उतने ही लंबे प्रीतिभाव से दूसरे का सुख या दुख बांट पाता है। अगर ऐसा नहीं होता तब व्यक्ति अपने से भिन्न किसी का सुख देखकर उसके प्रति या तो ईष्र्यालु हो जाता है या फिर क्रोधभाव से अभिभूत होकर अकारण ही सुखी व्यक्ति को हानि पहुंचाने का प्रयास करने लग जाता है।
इसी तरह से संकुचित संवेदना वाला व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को दुखी देखकर भी उसके प्रति करुण न होकर कठोर भाव वाला ही बना रहता है और इस विचार से संतुष्ट होने का प्रयास करता है कि इस व्यक्ति के साथ प्राकृतिक न्याय ठीक ही हुआ और अब ऊंट पहाड़ के नीचे आया है।
संस्कृत व्याकरण के अनुसार संवेदना शब्द में दो पद हैं। एक पद है सम् और दूसरा पद है-वेदना। इसमें ‘सम् का अर्थ है समान और वेदना का अर्थ है-अनुभूति। जब किसी एक व्यक्ति की अनुभूति किसी दूसरे व्यक्ति के सुख-दुख के साथ जुड़ जाती है तो उसे संवेदना कहते हैं। यह मनुष्य का एक उत्तम गुण कहा जाता है जिसके मूल में करुणा, अलोभ और समत्व की भावना मुख्य रूप से रहती है। जब कोई व्यक्ति किसी दूसरे के दुख से दुखी होता है तो ऐसी स्थिति तभी आती है जब हममें करुणा होती है और हम अपना कुछ त्याग करके दुखी व्यक्ति के लिए सहयोग करने को तत्पर होते हैं। संवेदना का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इससे व्यक्ति एक दूसरे के साथ जुड़ा महसूस करने लगता है और इससे सह अस्तित्व का सृजन होता है। यह समाज को एकसूत्र में बांधने का सवरेत्तम गुण है और आज के समय में इसका सर्वाधिक मूल्य और महत्व है।
No comments:
Post a Comment
If you have any doubt . please let me know